गज़ल
गज़ल
परत में लिपटे हम बहुत अनजान लग रहे थे,
इक सिर्फ़ उनकी नज़रों में शहंशाह लग रहे थे!!
इन खुशी के आसूंओं ने पूरा बदन धो डाला,
बाद कहीं जाकर हम लायक़ इंसान लग रहे थे!!
चुपचाप एक कोने से भाँप रहे थे सब कुछ,
देखने में वो तो हूबहू मेरे भगवान लग रहे थे!!
सलीके से उठाकर बड़े तसल्ली से पढ़ा था,
हम बेचारे उसकी मस्जिद में क़ुरान लग रहे थे!!
और ये जवानी ने चार किताबें क्या पढ़ ली,
भरी महफ़िल में वो हमको बेकार लग रहे थे!!