मेरी अपनी थी...!
मेरी अपनी थी...!
क्यों कहूँ कि ....
बस कट गई..
जो थी जैसी भी थी
मेरी ख़ुद की थी
अरे..!
कुछ और नहीं
मेरी ख़ुद की ज़िंदगी
और क्या...?
क्यूँ ना उसे अच्छा कहूँ...?
जब वो ही नहीं
तो फिर...
मैं कहाँ हूँ.?
फिर ..
क्यों ना मेरी स्मृतियों को
मैं ख़ुद सवारुं,
फिर मेरे बाद कौन
मेरी स्मृतियों को याद करेगा
एक तस्वीर में टांग दी जाऊँगी मैं
और फिर....
एक माला भी उस तस्वीर पर झूलता नज़र आयेगा,
संभव है वो भी वक़्त के साथ मूर्झा जाए,
या कि..
वो तस्वीर भी टूटी फूटी अवस्था में
लटकती नज़र आये,
उस पर डेरा हो धूल का
मकड़ियों और झालों का
और..
तस्वीर पर एकदम नीचे धुंधला धुंधला सा लिखा नजर आये स्वर्गीय
आने वाली पीढ़ी कभी भूले-भटके पूछ ले या देख ले स्मृतियों के कुछ पन्ने पलट कर :
और पूछ हमें कि..
कौन है ये...??
