मेरे रिश्तों की पोटली
मेरे रिश्तों की पोटली
कहे बिना भी मां का मेरी
हर जरूरत को समझ जाना,
महीनों बाद घर जाने पर
पापा का मेरी पसंद का
पकवान बनवाना।
मेरी बहनों का मेरे बस्ते का
उलट पुलट कर जाना
"दीदी यह वाला हम ले रहे हैं
"कहकर अपना हक जताना।
भाई का" मोबाइल चाहिए
"और "दीदी पैसे दो ना"
की रट लगाना,
ताऊ का "अरे तुम आ गई"
दिन भर में कई बार पूछते जाना।
रिश्तों का दिन ब दिन यूं निखरते जाना
और "अरे बेटा! जल्दी से मेरे घर भी आना।"
कभी कुछ खास हो जाते हैं,
खुशी अपनेपन की अलबेली सी है होती
रिश्तों की ये पोटली आख़िर है ही अनोखी।