मैयत
मैयत
हर मोड़ पर लगे पहरे
मैयत से कम नहीं लगते।
जिंंदगी जब झूठों के पुल पर खड़ी हो
तो जिंदगी भी मैयत से कम नहीं लगती।
कभी- कभी व्यवस्था के बारे मेंं सोचकर
बात करना भी,
अपनी मैयत में जाने की तरह लगता है।
शिक्षा? बस रहने ही दीजिए अब तो,
उन्नीस बरस कट गए,
विद्वानों को सुनते-सुनते,
मगर व्यवस्था मेंं जड़मतों की संख्या बढ़ती रही,
मानो ज्ञान भी ताबूतों में कैद हो गई हो
और हमें उनमें आखिरी कील ठोकने के लिए बुलाया गया हो।
हाँ, यहीं से विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं हम,
मैयत मेंं अपनी चलते चले हम।
अविश्वास की नींव ने कुचल दिया
विरोध से भरी आवाज़ों को।
असहिष्णुता का प्रपंच लहराने लगा
अब ज्ञान व्यवस्था पर,
और फिर ऊपर से असमानता की मिट्टी से ढँककर
ज्ञान व्यवस्था को दफ्न करने के लिए पहुँच गए हम।
बस अब ये नहीं पता
कब तक चलते रहेगा ये सब?
क्योंकि जो दौड़ आने वाला है,
वहाँ ताबूत कम पड़ेंगे,
क्योंकि तब लोग भी अशिक्षा के कारण ज़्यादा मरेंगे।
