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Amlendu Shukla

Abstract

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Amlendu Shukla

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मैं समझता नहीं

मैं समझता नहीं

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जो दुनिया बनाई है तूने प्रभू, हो गया क्या उसे मैं समझता नहीं।

गिर गया इस कदर आदमी है यहाँ, प्यार कोई किसी से है करता नहीं।

रहा न भरोसा जमाने में अब,और रिश्तों की भी व्याख्या न कोई।

डरेगा यहाँ कौन इंसानों से,जब ईश्वर से भी कोई डरता नहीं।

जो दुनिया बनाई है तूने प्रभु, हो गया क्या उसे मैं समझता नहीं।


हो गया है पतन मूल्यों का सभी, जमाना जिन्हें मानता था सही।

कर अनुष्ठान सारे जो सुरक्षा करे, प्राणघातक भी अब वो सकती वही।

पास आने से डरती हैं साँसे भी अब, क्या पता कौन आकर उन्हें रोक दे।

किस तरह से जियें इस जमाने में हम,प्रश्न उलझा है इतना सुलझता नहीं।

जो दुनिया बनाई है तूने प्रभू, हो गया क्या उसे मैं समझता नहीं।


हो सके पूर्ण उद्देश्य तेरा प्रभू, इसलिये तूने ऐसे थे रिश्ते बनाये।

बना करके बगिया घरों का यहाँ पति पत्नी के तूने थे पौधे लगाए।

साथ रहकर जमाने की बगिया में ये, एक दूजे की साँसों के आधार थे।

सुधापान जिसको कराना यहाँ था,क्यों पिलाया गरल मैं समझता नहीं

जो दुनिया बनाई है तूने प्रभु, हो गया क्या उसे मैं समझता नहीं।


चाहता क्या है इंसान खुद से यहाँ, क्या इच्छा घनीभूत कर चल रहा।

जलाकर जगत का सलोना सा उपवन, नफरत के धुएँ में स्वतः जल रहा।

आज कोई किसी का नहीं दीख पड़ता, एहसास अपनों का मिलता नहीं।

अँधेरों से ढूँढे उजाले जो इंसां, क्या चाहता है, मैं समझता नहीं।

जो दुनिया बनाई है तूने प्रभू, हो गया क्या उसे मैं समझता नहीं। 


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