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Amlendu Shukla

Abstract

3  

Amlendu Shukla

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अपने और पराये

अपने और पराये

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380


रङ्ग रंगीली दुनिया इतनी, आँखों में नहीं समाये

अनुभव जीते जीते, इसका सबको मिल जाये

कैसे किसको कोई कह दे अपने और पराये

जितना इनसे जुड़ता कोई, उतनी ठोकर खाये

रङ्ग रँगीली दुनिया इतनी आँखों में नहीं समाये


हो गए बड़े, घर से निकले, निश्चित कर्तव्य किये अपने

बालकपन की आँखों ने फिर देखे कुछ मीठे सपने

उत्साह रहा कुछ करने का, अपनों की खातिर जीने का

पर अपना मिला नहीं मुझको, जो अपनापन जतलाये

कैसे किसको कोई कह दे, अपने और पराये


जितने चतुर मिले हमको, वो सब सज्जन कहलाये

गङ्गा से भी निर्मल बनते, पर बैठे जाल बिछाये

एकलक्ष्य ले करके बैठे, फँसे परिन्दा कोई

जो भी इधर से गुजरे, वो बच कर न जा पाये

कैसे कोई किसको कह दे अपने और पराये


फितरत बना लिया है धोखा, सबको देते ही आये

निज स्वारथ की खातिर भूलें हैं, अपने और पराये

हाथों में लेकर छूरा, आतुर गले लगाने को

ऐसी दुनिया में शायद कोई भोला बच पाये

कैसे किसको कोई कह दे अपने और पराये


आसान नहीं निर्णय करना अब जिया किस तरह जाये

रङ्ग बदलते इंसानों से गिरगिट भी शरमाये

हो गए जानवर बेहतर ही इन बहुरंगी इंसानों से

जो लालच, स्वार्थ की खातिर, खुद ही में रह जाये

कैसे किसको कोई कह दे अपने और पराये।


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