मैं मज़दूर हूँ मजबूर नहीं...
मैं मज़दूर हूँ मजबूर नहीं...
मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं...
बोझा उठाता हूँ ,मैं बोझ नहीं...
सपनों की गठरी लिए
कुछ ख़्वाब पिरोने आए थे,
चंद सिक्कों की खन खन सुनने
शहर बसाने आए थे।
मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं...
कुछ वक्त की आँधी ऐसी चली
बिखरी अरमानों की गठरी
माथे पर लादे सपनों की मोटरी
यादों की पोटली से भरी गगरी
मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं...
गाँव की याद सताने लगी
खेतों की हरियाली रिझाने लगी,
माटी की ख़ुशबू आने लगी
वो अँगना खलिहान पुकारने लगे।
मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं...
पाँव में छाले,नयनों में आस
मंज़िल कोसो दूर है मगर,
पैदल ही पार करना है
पसीना थोड़ा बहाना है।
मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं...
डगर पथरियाँ ,चुभते कंकड़िया
मीलों दूर पर चलना है,
काली है सड़क ,तक़दीर नहीं
गाँव के छाँव हमें पहुँचना है।
मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं...
चौखट पर खड़े बूढ़े वृक्ष
शाखाओं को निहार रहे,
कब लौटेंगे खग वृंद
चहकेंगे हरे डालों पर।
मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं...
मुनिया और गुजरिया
ताज़ी मीठी नून रोटियाँ ,
माँ काँ अँचरा ,बाबू का गमछा
जहाँ हो ,जहान वहीं बसाना है।
मज़दूर हूँ पर मजबूर नहीं...
बोझा उठाता हूँ,मैं बोझ नहीं।
