"मैं और मेरे ग़मों से गुफ़्तगू"
"मैं और मेरे ग़मों से गुफ़्तगू"
मैं अपनी बीती क्या सुनाऊँ, दर्द ने दस्तक़ दी है,ग़मों से गुफ़्तगू होती है।
अकेला हुँ, अंधकार है, उलझने हैं, तन्हाईयाँ हैं, और कभी ना मिटने वाले फासले हैं।
अब तो यादों में, ख्वाबों में, पल्कों में उसका आना है और नम आँखों से बह जाना है।
मैं रोता हुँ, सिसकता हुँ, गिरता हुँ, फ़िर उठता हूँ।
दर्द भरे नग़मे लबों से दुहराता हुआ, मैं गीत गाता हुआ, हँसता हुआ,मुस्कुराता हुआ।
खुद को संवारता हुँ, मन को मनाता हुँ और प्यारी सी निंद सो जाता हूँ।
फ़िर ख्वाबों की परी दस्तक़ देती है,ख़ुशियों से गुफ्तगु होती है,
ये सिलसिला,ये कारवाँ यूँ ही चलता रहता है।
मैं अपनी बीती क्या सुनाऊँ, दर्द ने दस्तक़ दी है,ग़मों से गुफ़्तगू होती है।

