जख़्म–ए–ज़िन्दगी, लेखकी ज़ुबान
जख़्म–ए–ज़िन्दगी, लेखकी ज़ुबान
वक़्त के सितम हैं बयाँ, अब हैं बयाँ।
वक़्त ने ये कैसी पल्टी मारी
अतीत साए की तरह वक़्त के साथ वापस आया,
खड़ा किया भी तो वहां जहां की कल्पना मैंने कभी ख़्वाबों में भी नहीं करी थी।
ज़िन्दगी ने उस पुराने जख़्म को कुरेदी, जिसको सुखे महज़ कुछ महीने हुए थे, अंदर से तो वो आज भी हरा था।
ऐसे वक्त में आप अपने हमदर्द को ढूंढते हो,क्योंकि सुना था दर्द बाँटने पर हल्का हो जाता है,
और आज मुझे उस हमदर्द की कमी फिर खली।
पर इस बात पर मैं तो किसी से नाराज़ भी नही हो सकता क्योंकि मैंने तो अकेलेपन से ही दोस्ती करी है,
अपने व्यक्तित्व में अधूरेपन और खामोशियों को बख़ूबी ढाला है,
क्योंकि वो प्यार करने वाले, वो अपना कहने वाले,
हर सूख दुख में हाथ पकड़ कर साथ चलने वालों ने तो सदा ही अपने जरूरत से मेरे साथ का सौदा किया।।
सारे जख़्मों पर हर बार की तरह, मैन उसी पुराने मरहम को लगाने की कोशिश करी जो हर बार उस दर्द को हिं मेरा दबा बना देता,
पर इस दफा वक़्त ने मुझे उससे भी जुदा कर दिया, ज़िन्दगी के तराने को संगीत के ज़ुबान से गुनगुनाने तक का मौका न दया।
वक़्त ने सारी हदें तब पार करी, जब जख़्म के उन लाल फुहारों को आँखों से उतरने का सहारा तक न मिला,
क्योंकि गैरों के सामने आँशु बहाने से डरता हूँ मैं,
कौन जाने आपके उन आँशुओं से कौन कब कैसे अपने फायदे का सौदा कर जाए।।
हो सकता है आप मुझे जिद्दी या पागल बोलें पर अब तो मुझे इन लब्ज़ों को फूलों की भाँति माले में पिरोकर पहनने की आदत सी पर गई है,
क्योंकि ज़िन्दगी के जख़्म, और वक़्त के सितम ने मुझे कब एक लेखक बना दिया अब याद तक नहीं।
आज जाना की एक लेखक को लोग पागल क्यूँ बोलते हैं,
उसे एकांत, अंधकार, और अकेलेपन से इतनी मोहब्बत क्युं है,
दुनियादारी के तमाम सुखों से कहीं ज्यादा उसे अपने ग़मे दर्द से इश्क़ क्युं है।
ऐ ज़िन्दगी तेरे जख़्म ने इस नाचीज़ को ज़िन्दगी जिने के तरीके सिखा दिए
उसके लिए तहे दिल से तेरा शुक्रिया वरना कितनों को वक़्त के जख़्म पर मरहम की जगह ज़िन्दगी को गले लगाते देखा है मैंने।।
ऐ जख़्म ए ज़िन्दगी, तूने इस लेखक को ढूंढ ही लिया, तेरा शुक्रिया।