मैं आफ़ताब हूँ
मैं आफ़ताब हूँ
आफ़ताब हूँ रोज़ निकलता हूँ
कुछ अंधेरे रोशन करने
मायूसियों के अब्र हटाकर
यहां वहाँ खुशियाँ भरने
कितने चिराग रात के साये में
जलते, टिमटिमाते, बुझते हैं
काली चादर को चीर कर
आता हूँ उम्मीदें फिर जगाने
बेहोश, मदहोश, थका, बेबस
बेसुध, पड़ जाता इंसान रात भर
दिन का आगाज़ मैं करता हूँ
साथ उसके आंखें दो चार करने
सारी कायनात को चमकाता हूँ
अपनी सतरंगी खिलती चादर से
जगाता हूँ नींद से ए मेरे दोस्तों
याद दिलाता हूँ, जीयो सपने अपने
कौन मेरी हकीकत से वाकिफ नहीं
मैं डलता नहीं बस छोर बदलता हूँ
टिका हूँ एक जगह सुस्ताये बिना
जलता रहता हूँ कायनात रोशन करने…