लम्स तेरा
लम्स तेरा
सिलसिला वो भी अजीब दिलकश था
प्रेम के वो रूहानी अहसास
कि जिसका गवाह आज भी है
स्याह रात के जुगनुओं का वो झुंड
जिसने दिया था संगीत नेपथ्य में
वो प्रेम कविता जो तुमने लिख दी थी
कुछ ही क्षणों में मेरे तन मन पर
अनगिनत यादों की सिलवटों में
बिलखती हैं मेरी साँसें आज भी
हर रोज तुम से जुड़ना थोड़ा थोड़ा
हर रोज खुद को खोना थोड़ा थोड़ा
हर बार जो ढूँढ़ती थी निगाहें मेरी
हर दफा छूटता हुआ वो लम्स तेरा
इक नासूर सा चुभा था आज फिर मुझ में
तन्हाई से नाता जुड़ा था आज फिर मुझ में
मलाल जिन्दगी से रह गया इतना भर
कि तेरे प्रेम गीत को ना गा सकी उम्र भर
शायद सादिक न थी मोहब्बत ही मेरी
इसलिए तो मैं होकर भी न हो सकी तेरी
अब बस एक लम्स ही बचा है तेरा
मुकम्मल कर रखा है जिसने आज भी
तुझ को मुझ में, मुझ को तुझ में थोड़ा थोड़ा।।