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Kunda Shamkuwar

Abstract Others

4.1  

Kunda Shamkuwar

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लफ़्ज़ों का ख़फ़ा होना...

लफ़्ज़ों का ख़फ़ा होना...

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पता नहीं आज मैं कोई कविता लिख नहीं पा रही हूँ ...

शायद लफ़्ज़ मुझसे ख़फ़ा है... 

मैं कुछ लिखती हूँ ...वह कुछ कहते है...

मैं लिखती हूँ जल...

वह कहते है जल...

अब पानी की कविता में आग वाली कविता कैसे होगी भला?

और अगर होगी भी तो पाठक कन्फ़्यूज़ ना होंगे?


थोड़ा रुक कर मैं लिखती हूँ सदा....

वह कहने लगते है सदा...

फिर वही कन्फ़्यूज़न....

मैं थक जाती हूँ ....काग़ज़ कलम सरका देती हूँ ...

लेकिन मिनट भर बाद फिर काग़ज़ कलम पकड़ कर किसी ज़िद्दी कवि की तरह लिखने लगती हूँ...

अब ज़रा संजीदा होकर लिखने की कोशिश करती हूँ ...

मैं लिखती हूँ आईना...

वह फिर शीशा कहते है...

मैं लिखती हूँ दुपट्टा...

वह हिज़ाब कहते है...

मैं लिखती हूँ मंदिर...

वह फिर मस्ज़िद कहते है...

मैं थक हार कर काग़ज़ फाड़ देती हूँ ...

और कलम को बंद कर कहीं दूर रख देती हूँ ...


लेकिन वह सारे लफ़्ज़ मेरा पीछा करने लगते है...

मेरे आगे कहकहे लगाते है...अलाहाबाद को प्रयागराज कहने लगते है..

मैं निरीह निगाहों से उन्हें ताकने लगती हूँ... 

लेकिन वे अब ज्यादा ताक़तवर हो जाते है...

अब वे ठहाके लगाते हुए अलीगढ़ को हरिगढ़ कहने लगते है...

मैं आँखें बंद कर देती हूँ ....

लेकिन उनकी वह हँसी मेरे बंद आँखों से छुपती नहीं है...

क्योंकि मेरे कानों में संभाजी नगर और औरंगाबाद की सरगोशी सुनायी देती है...


 


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