STORYMIRROR

Bhavna Thaker

Tragedy

4  

Bhavna Thaker

Tragedy

लौट आओ

लौट आओ

1 min
249

चंद सिक्कों की खनक लुभावनी लगती है,

जाता है दूर देश जब कोई अपना

तब अपनों की हालत गमख़्वार होती है।


खुशियों के पल नहीं लगते मीठे,

और अनमने समय की कोई घड़ीयाँ नहीं कटती है,

यादों के नश्तर चुभते है दूर बैठे रिश्ते की डोर

जब बेइन्तहाँ खिंचती है।


पत्नी अपने प्रियतम की एक झलक को तरसती है,

अर्थी कभी पिता की बेटे के कँधे से वंचित रहती है,

ये कमबख़्त फासलों की सरहद कहाँ पल में पिघलती है।


क्या नहीं मेरे देश में क्यूँ परदेश की प्रीत सिंचनी है,

सपनों के सौदागरों को शायद इस देश की मिट्टी

नहीं जँचती है।


रोती माँ की दुआओं की दहलीज़ तो पार कर जाते है,

अफ़सोस संघर्षों के सहरा सी दूर बसी ज़िंद में पिता के

आशीष की छाँव कहाँ होती है।


लौट आओ माँ के जिगर के टुकड़ों और बाप के बुढ़ापे की लाठी

क्यूँ भूल गए वो स्वाद अपने देश में भी तो सरसों दा साग ते

मक्के दी रोटी है।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy