क्यूँ दूर हो गये हम
क्यूँ दूर हो गये हम


क्या इतने मजबूर हो गये हम
कि इतने दूर हो गये हम
बिछड़ते वक्त
मेरे दुपट्टे का कोना
जब उलझा था तुम्हारी घड़ी से,
मैं ये सोच कर पलटी
शायद पकड़ा होगा तुमने
बिछड़ते वक्त जब चुराई थी तुमने
नम आंखें
मैं ये सोच कर ठिठक गई
के अब रोकोगे तुम मुझको,
बिछड़ते वक्त जब शब्द खो गये थे
हम दोनों के दरमियां
मैं ये सोच कर देखती रही
थामोगे हाथ मेरा सीने से लगा लोगे
पर हुआ ना ऐसा,
कल तुम जुदा हुए थे
जहाँ हाथ छोड कर
मेरी तो ज़िंदगी अब भी वहीं खड़ी है
तुम्हारी राह तकते !
कहीं से भी कभी भी पुकार लो
पलट के मेरी आवाज़ न सुनो तो कहना
एक बार ही सही आवाज़ दो कहीं से
मैं तो तुम्हें खो के भी
पुकारती ही रही बार बार,
कि सारा रब्त तो आवाज़ के सफ़र का है
मीलों के फ़ासले से भी
सुन लूं गर जो तुम पुकार लो
जानती हूँ दूर से तकती है
तुम्हारी आँखें मुझको,
मगर आँखों की भाषा में
आवाज नहीं होती
लबों के जैसा कोई साज नहीं
गुनगुनाएगी जिंदगी
तेरे आने से फिर से,
जो कभी आवाज़ दो
रुक कर देख भी लेना
जवाब के लिए
एक पल रुकना
शायद कोई इंतज़ार ही कर रहा हो
जवाब देने के लिए
तुम्हारी आवाज़ का।
तुम जहान में चाहे कहीं भी रहोगे
तुम्हें तुम्हारी आवाज से पहचान लूँगी
पर हाँ, सिर्फ आवाज़ देने से ही
कारवां नहीं रुका करता
देखा ये भी जाता है कि पुकारा किसने है !
तुम पुकार लो तुम्हारा इन्तज़ार है
बस एक बार पुकार लो
हम वहां से भी लौट आयेंगे
जहाँ से मुड़कर कोई नहीं आता।