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Poonam Singh

Classics

4  

Poonam Singh

Classics

" कविता"

" कविता"

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मैं समझ नहीं पाती

कविताओं की भाषा 

ये कई बार मुझे

दिखाती है मंज़िल 

की राह

 तो कई बार

कमजोर बना 

देती है


कतरन सी 

शब्दों को

समेटना भी 

चाहूँ तो 

उछलकर दूर 

खड़ी हो जाती है

 कई रंगो में 


मुस्कुराती इठलाती

आँखे दिखाती

कभी दुलारती है  

जीवन के सघन तम में 

तो कभी

 फटकारती भी है

मेरे जज्बातों की

स्याही बनकर

तो कभी स्वयं ही


चुन लेती है रास्ता

बच्चें की मसुमियत में 

बुजुर्गो की पोपलि 

मुस्कान में

उस बुढी माँ के 

होठों पर भी

जब वो धुंधली

आँखों से भी पढ़ लेती 

है अपने पुत्र के 

आने की खबर


साँझ की आभा 

जब छूती है गोरी के

अधरों को तब 

अनायास ही

मेरी कविता मुस्कुरा

उठती है और 

नंगे पाँव ही

लगाती है दौड़

 गाँव के 

आखिरी मोड़ तक 

मुस्कुरा उठती है


गोरी के होठों पर

प्रेमी सूचक बन कर

गरीबी और अमीरी

 का इश्के रंग

चढ़ ना पाया

तो कहीं 

बेबसी लाचारी के

होठों पर पपड़ी सी

अधखुली मुस्कान 

ही बन कर रह गई


जिन्दगी तमाम 

गुजर गई

किंतु हर बार 

उदास रही

एक शहीद बेवा के 

होठों पर

 थिरकने से

कतरन कतरन मेरी कविता

ढलती रही हर रूप रंग में...


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