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कवि की अभिलाषा

कवि की अभिलाषा

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ओ मेरी कविते तू कर,

परिवर्तित अपनी भाषा,

तू फिर से सजा दे ख्वाब नए,

प्रकटित कर जन मन व्यथा।


ये देख देश का,

नर्म पड़े ना गर्म रुधिर,

भेदन करने हैं लक्ष्य भ्रष्ट,

हो ना तुणीर।


तू भूल सभी वो बात,

कि प्रेयशी की गालों पे,

रचा करती थी गीत,

देहयष्टि पे बालों पे।


ओ कविते नहीं है वक्त,

देख सावन भादों,

आते जाते है मेघ,

इन्हें आने जाने दो।


कविते प्रेममय वाणी का,

अब वक्त कहाँ है भारत में ?

गीता भूले सारे यहाँ,

भूले कुरान सब भारत में।


परियों की कहे कहानी,

कहो समय है क्या ?

बड़े मुश्किल में हैं राम,

और रावण जीता।


यह राष्ट्र पीड़ित है,

अनगिनत भुचालों से,

रमण कर रहे भेड़िये,

दुखी श्रीगालों से।


बातों से कभी भी पेट,

देश का भरा नहीं,

वादों और वादों से सिर्फ,

हुआ है भला कभी ?


राज मूषको का,

उल्लू अब शासक है,

शेर कर रहे न्याय,

पीड़ित मृग शावक है।


भारत माता पीड़ित,

अपनों के हाथों से,

चीर रहे तन इसका,

भालों से, गंडासों से।


गर फंस गए हो शूल,

स्वयं के हाथों में,

चूकता नहीं कोई,

देने आघातों में।


देने होंगे घाव कई,

री कविते, अपनों को,

टूट जाये गर ख्वाब,

उन्हें टूट जाने दो।


राष्ट्र सजेगा पुनः,

उन्हीं आघातों से,

कभी नहीं बनता है देश,

बेकार की बातों से।


बनके राम कहो अब,

होगा भला किसका ?

राज शकुनियों का,

दुर्योधन सखा जिसका।


तज राम को कविते,

और उनके वाणों को,

तू बना जन को ही पार्थ,

सजा दे भालों को।


जन में भड़केगी आग,

तभी राष्ट्र ये सुधरेगा,

उनके पुरे होंगे ख्वाब,

तभी राष्ट्र ये सुधरेगा।


तू कर दे कविते,

बस इतना ही कर दे,

निज कर्म धर्म है बस,

जन मन में भर दे।


भर दे की हाथ धरे रहने से,

कभी नहीं कुछ भी होता,

बिना किये भेदन स्वयं ही,

लक्ष्य सिद्ध नहीं होता।


तू फिर से जन के मानस में,

ओज का कर दे हुंकार,

कि तमस हो जाये विलीन,

और ओझल मलिन विकार।


एक चोट पे हो जावे,

परजीवी यहाँ सारे मृत,

जनता का हो राज यहाँ पर,

जन गण मन हो सारे तृप्त।


कि इतिहास के पन्नों पे,

लिख दे जन की विजय गाथा ,

शासक, शासित सब मिट जाएँ,

हो यही राष्ट्र की परिभाषा।


जीवन का कर संचार नवल,

सकल प्रस्फ़ुटित आशा,

ओ मेरी कविते, तू कर,

परिवर्तित अपनी भाषा,

तू फिर से सजा दे ख्वाब नए,

प्रकटित कर जन मन व्यथा।


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