कुछ जिंदगियां
कुछ जिंदगियां
श्रम के प्रतीक, लेकिन अवहेलना से पीड़ित!
कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहते हैं,
कोई मंज़िल नहीं, कोई भविष्य नहीं ।
आलीशान आशियाना बनाते हैं,
पर स्वयं के रहने के लिए झुग्गियां!
शिक्षा के विशालकाय मंदिरों के निर्माण कर्ता!
पर उनके बच्चों के लिए इनके पट सर्वदा बंद!
गांव से निकल कर आए मजदूर कहीं खो जाते हैं ,
शहरों में अपना अस्तित्व तक बचा नहीं पाते।
बेतहाशा महंगाई इन्हें खून के आंसू रुलाती है,
शहर की प्रदूषित हवा इन्हें स्वस्थ नहीं रहने देती।
गरीबी, लाचारी और सुकून विहीन जिंदगी,
जितनी भी मेहनत कर लो, धन जुड़ता ही नहीं।
अफसोस! शहरी चकाचौंध में इन्हें सच्चाई नहीं दिखती,
और ईंट और पत्थरों के बीच जिंदगियां फंसी रहती है।