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संजय असवाल "नूतन"

Abstract

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संजय असवाल "नूतन"

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कुछ बदला बदला शहर

कुछ बदला बदला शहर

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कहते हैं 

बदलाव जरूरी है, 

हर नए आगाज के लिए, 

ऋतुएं बदलती है, 

मौसम बदलता है, 

बदलता है 

हर किसी का मिजाज भी, 

पर जब बदलाव 

एक जीते जागते शहर की 

खुशियों की नीव हिला दे, 

उसके पुराने रिश्तों को कुंद कर दे, 

तो ऐसा बदलाव बेतरतीब हो जाता है, 

शहर का सीधा साधा रास्ता 

मुश्किल सा लगने लगता है, 

कुछ अलग बेढंग सा दिखने लगता है, 

बदले लोग नए अजनबियों का जमावड़ा 

गैर जरूरी लगने लगता है, 

उनकी विश्वसनीयता,अपनापन 

शहर की कसौटी पर 

ढोंग सा दिखने लगता है,


शहर की जान उसकी पुरानी अदावत  

अब नदारत है, 

और जो खुशबू दूर दूर तक फैली थी 

बासमती,लीची की, 

अब वहां नहीं है, 

छोटे छोटे घर अब बड़े हो गए हैं, 

कंक्रीट के जंगल हर ओर उग गए हैं, 

जो हरियाली को निगल कर 

खुशियों का मातम मना रहे हैं, 

शहर की आत्मा 

रस्पना और बिंदाल उसका तो क्या कहने, 

उनका नीला सा साफ पानी 

जिसमें तैरती मछलियां दिख जाती थी, 

अब सूख गई है, 

कूड़े के नाले में तब्दील हो गई है,

इस बदलते शहर के मिजाज की तरह, 

जहां कुछ बूढ़े बचे हैं अवशेष की तरह, 

गिन रहे हैं  

अपनी बची हुई उम्र को उंगलियों में, 

और देख रहे हैं 

बसे बसाए शहर को   

एक बार फिर से बसते, 

वो अपनी जिंदगी की हसीन यादों को 

अब मुक्त हो जाने देते हैं, 

शहर को उसके हाल पर 

जीने देते हैं, 

और सौंप देते हैं 

इस खूबसूरत शहर को 

अजनबियों की भीड़ को।


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