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कुछ अधुरा सा

कुछ अधुरा सा

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कुछ अधूरा सा ढूंढता हूं मैं अंदर

पढ़ने की कोशिश करता हूं उस फटे हुए पन्ने को

आसमान को देखता हूं कई कई बार

काले बादलों को आते जाते


कहीं बारिश होती है तो रुक जाता हूँ

मिट्टी को गौर से देखता हूँ सोखते हुए

उन तमाम बूंदों को भी

जो अक्सर मुझसे तुमसे होकर गुजरती है


सवाल करता हूँ अब खुद से

क्या चाहता हूं मैं

तुमको देखना तुमको जान लेना या न जाने

खुद को पा लेना तुम्हारे अंदर


वक़्त को कई टुकड़ो में बांट दिया है मैंने

कई हिस्सों में बंदिशों के साथ

बंदिशे उस वक़्त को तुम्हारा बन जाने के लिए

और फिर बंदिशे उसके थम जाने की


मैं खुद को संभालता हूं रोज़

उन पलों में जब तुम साथ होती हो

उन पलों में भी जब तुम दूर चली जाती हो

मेरे कई सवालों को यूं ही अधूरा छोड़कर




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