कश्ती
कश्ती
ये बात समझने में बहुत देर हो गई
तुझे किसी और के साथ चलना था
सियाह रात में कई ख़्वाब बुन लिए
ख़्वाब जिन्हें कहाँ मुकम्मल होना था
खाली कमरे में अब तेरी सदा ढूंढता हूँ
ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-जां की दवा ढूंढता हूँ
बर्फ़ की मानिंद वक़्त भी पिघल रहा है
और ये ख़ामोशी मुझ को निगल रहा है
मैं तो एक बहता हुआ दरिया था
तू कश्ती थी तेरा ही सहारा थासैलाब
में सारे घर-बार ढह जाते हैं
कश्ती बढ़ जाती है किनारे रह जाते हैं
तू जो अब जहाँ कहीं है ख़ुश तो है तेरी
इस ख़ुशी से मुझे सुख तो है मगर ऐ जान !
तुझ से एक बात कहूँ
आख़िर यादों के सहारे कब तक चलूँ
असीरे-इश्क़ ठीक नहीं होता जो कुछ भी है
पिंजरे के पार है मुझे असीरी से आज़ाद होना है
और मुश्किल ये मुझे सब कुछ याद है।