मंजर
मंजर
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एक मंजर जो धुँआ होता हुआ
शम्अ-ए-उम्मीद ले जाता हुआ
लौटना पड़ता है इक तय वक़्त पे
शाम फिर ढ़ल जाएगा ढ़लता हुआ
जो अना को ताक पर रख के मिले
ख़ुश होता हूँ मैं उसे मिलता हुआ
फूंक के रखता है जो हर इक कदम
चाल चलता है बहुत बरता हुआ
पूछ लेंगे हम ख़ुदा से भी कभी
क्या बनाना था ये क्या बनता हुआ।
