अगर माज़ी के ग़म से आँख ये पुर-नम न हो
अगर माज़ी के ग़म से आँख ये पुर-नम न हो
1 min
286
अगर माज़ी के ग़म से आँख ये पुर-नम न हो
तो हक़ से छेड़ वो सरगम जो फिर मद्धम न हो
मुझे ऐसी जगह पे छोड़ जां कोई न हो
न हो कोई भी चारागर कोई मरहम न हो
गुज़रती है जहाँ से लोग तकते हैं उसे
मैं अब पाज़ेब ऐसा दूँगा जो छम-छम न हो
उदासी देख इस मौसम की ये डर है मुझे
कहीं ग़म के किसी साए में ये मौसम न हो
जबीं चुम और फिर से ज़िंदा कर दे रूह को
कि इस इंतेज़ार में बंदा कहीं बेदम न हो।
