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Samar Pradeep

Others

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Samar Pradeep

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अगर माज़ी के ग़म से आँख ये पुर-नम न हो

अगर माज़ी के ग़म से आँख ये पुर-नम न हो

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अगर माज़ी के ग़म से आँख ये पुर-नम न हो

तो हक़ से छेड़ वो सरगम जो फिर मद्धम न हो


मुझे ऐसी जगह पे छोड़ जां कोई न हो

न हो कोई भी चारागर कोई मरहम न हो


गुज़रती है जहाँ से लोग तकते हैं उसे

मैं अब पाज़ेब ऐसा दूँगा जो छम-छम न हो


उदासी देख इस मौसम की ये डर है मुझे

कहीं ग़म के किसी साए में ये मौसम न हो


जबीं चुम और फिर से ज़िंदा कर दे रूह को

कि इस इंतेज़ार में बंदा कहीं बेदम न हो।


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