कर्ण और कृष्णा
कर्ण और कृष्णा
हे मधुसूधन, आपने कही और मैंने सुनी
आपने जो भी मुझे बात कही
क्षत्रिय बताते आप मुझे अब, सूत पुत्र सुनते मेरी जिंदगी कटी||
कैसे जीता मैं कैसे रहता
चैन की रात न एक कटी
विनाश का समर अब आ चुका है, ये बात कहाँ से आज उठी||
उस माँ की मैं बात करूँ क्या
पाषाण हृदय जो धरी
मान अपना सुत प्यारा, क्यूँ पय न मुझको पिला सकी||
कुल छिपाया पहचान छिपाई
गोदी में न उसके आग लगी
वैरी-सा वो काम है करती, माताओं को क्यूँ बदनाम करी||
सबकी भौं थी मुझ पर तनती
यशस्विनी माता वो बनी
जो भी बीता मुझ पर बीता, वो अपरिणीता हमेशा बनी रही||
गौत्र-जाति से दीन-हीन मैं
दुनिया मुझ पर हँसती रही
किस-किस से मैं मुँह छिपाता, सम्पूर्ण जिंदगी मेरी पड़ी||
मलिन पड़ता सारा तेज भी
मेरी वीरों में न होती गिनती कहीं
युद्ध कौशल भी दिखा न पाता, आशा-निराशा में बदल गई||
अनादर पाता निम्न कहलाता
शूद्र की संज्ञा मेरी रही
फटी जाती थी छाती मेरी, न तानों की वर्षा रुकी कभी||
रंगमच में मेरा उपहास हुआ तो
शांतचित हो माँ खड़ी
क्यूँ रोक सकी न मेरे अनुज को, जिन्होंने फब्तियाँ लाख कसी|
पला-बढ़ा मैं शूद्र वंश में
सूत पुत्र पहचान बनी
अपमान की अग्नि बुझ न पाती, क्यूँ ये सब माँ को याद नहीं|
छिपकर मुझसे मिल सकी न
क्यूँ सुत भी अपना कह सकी
आँचल में सुलाती मुझको कुछ पल, क्या मेरी उसे कुछ याद नहीं||
राजमाता का धर्म निभाती
कुछ ममता वो मुझे दिखाती
मानता हूँ ये आर्यवृत है, जहाँ नारी अभी तक न दया तजी||
कुछ भी माँ-सा किया न उसने
न उसको कुछ मेरी पड़ी
खुश है वो पुत्रों के संग में, मेरा तो उसको ध्यान नहीं||
राजमहल के सुख में चूर जो
क्यूँ मुझ पतित से दूर रही
पाप-श्राप कुछ शेष है शायद, कभी इसलिए मुझसे मिली नहीं||
पाप न उसको काट खाएगा
बेवजह मेरी माँ डरी
भस्म न होगी श्राप-शक्ति से, घबराने की इसमें बात नहीं||
याद न आया अब तक था जो
उसको मनाने आज चली
जिस लक्ष्य को साध के चलता, छीनने उसको मुझसे चली||
महाविनाश की छटा है सर पर
सेना सब तैयार खड़ी
महाशत्रु मेरा छोटा अनुज है, उसको बचाने की ये युक्ति सभी||
भय से एक माँ आज भरी
तज मुझको जो दूर खड़ी
मुझे नहीं वो पुत्र बचाती, मित्र सयोधन की आस मैं ही||