"कर्म" मार जाएगा
"कर्म" मार जाएगा
दम तोड़ देती है करुणा,
खुदकुशी कर लेता है विश्वास,
मर जाती है इंसानियत..
जब जब मानव हर लेता है
किसी बेजुबान का श्वास।
प्रेम किसी कोने में फूट फूट के रोता है,
हिंसा के चीथड़े देख दर्द को भी दर्द होता है।
यूं तो तू मानव गणपति बप्पा के सहारे,
पर तेरी दरिंदगी पर रोती रही "उमा" पानी के किनारे
दम तोड़ दिया नन्हे शिशु संग उसने दर्द के मारे
किस हद तक गिर गए ज़हरीले नवागत हत्यारे?
इन आदमज़ादों की क्रूरता के सामने राक्षस भी हारे ।
हे ईश्वर! मैं शर्मसार हूं मनुष्य कहलाए जाने पर,
ऐसे नर पशुओं के संस्कृति को मिट्टी में मिलाने पर
और लानत है मानुष का मानुष कहलाने पर।
बेजुबान तो आखिरी सांस तक भी निभाते हैं,
दण्ड देने के बजाए चुपचाप दर्द सह जाते हैं
आदमी के ज़रा पुचकारने पर बेशुमार प्यार लौटाते हैं
लेकिन हम जैसे ज़हर बुझे लोग,
इतने निस्वार्थ प्रेम को हज़म नहीं कर पाते हैं।
अब माफ़ी क्या मांगे रे बंदे...
तू अपनी करनी पर बहुत पछताएगा
तुझे कोरोना जैसी महामारी नहीं,
तेरा अपना "कर्म" ही मार जाएगा।
