कर्ज, राखी का...!
कर्ज, राखी का...!
कैसे कहूँ, आज तेरी 'राखी के बदले,
'मेरी बहना', मैं तुझे, क्या दे पाउँगा।
हर बहन-बेटी, है असुरक्षित जबतक,
तुझसे कैसे मैं 'रक्षा-सूत्र' बँधवाऊँगा॥
हर गली-नुक्कड़ पर, मिलते हैं भेड़ियें,
किस-किस से तेरी, 'अस्मत' बचाऊँगा।
हर दर बैठा, हरण करने को दुशासन,
बन कृष्ण हे कृष्णे, कहाँ कहाँ आऊँगा॥
रे बहन.! तु शक्ति है, दुर्गा है, काली है,
तेरे 'मन-मंदिर' में ये, अलख जगाऊँगा।
उठ.! खड़ी हो, सबल बन अबला नही,
फिर तेरे रक्षा को मैं, शिला बन जाऊँगा॥
ना हो कहीं से कोई निर्भया की आहट,
एक ऐसा ही संसार, जब मैं बना पाऊँगा।
हर बहनों के दिल से, भय दूर हो तब,
शायद 'राखी का क़र्ज़' मैं चुका पाऊँगा॥
आए जो कभी नौबत तो, 'रावण' बन जाऊँगा।
लाज बचाने को मैं अपना, 'सर्वस्व' लुटाऊँगा॥