कोई वो अभिराज सा
कोई वो अभिराज सा


चाँदी सी उजली भोर में
अभिराज सा कोई आकर
बंद पलकों पर सुगंधित लबों से
मेरा शृंगार कर गया वो
विरक्त सी मेरी मुस्कान में
रंग हज़ार भर गया वो
मधुमास की पहली बेला में
विरह की पीर हर गया वो
आँसू के सागर भरती आँखों में
प्रेमिल पुष्प भर गया वो
अमर प्रतिक्षित अंतहीन नभ में
चिर मिलन की सरिता दे गया वो
द्रुत पंख वाले मन में
उड़ान की परवाज़ भर गया वो
पीड़ा की मधुर कसक में
शीत परत संदली गूँथ गया वो
प्रतिपल की झंखना को
युगों का आलिंगन दे गया वो
मुझ जीवन विधुर निशा सा
कुमकुम सा भर गया वो
अतृप्त उर धरा की
तृष्णा मिटा गया वो