गजल
गजल
खिड़की भी नहीं खुलती पर्दे भी नहीं बदले जाते
ऐसा लगता है कोई भूल रहा है धीरे धीरे
सदा भी नहीं आती खिड़की से की तबस्सुम आये लबों पर
गुफ़्तगू तो होती होगी पर शायद धीरे धीरे
रूखे गुलफाम देखकर चाँद भी आ जाये जमीं पर
चाँद को क्या पता वो नकाब बदलते है धीरे धीरे
जामे मय लिए पूछते है ले लो बिनोद
दूरियां भी नहीं मिटती खुद पीते है धीरे धीरे।