गजल
गजल
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ये कैसा शहर है कि सहर ही नहीं होता
अपने सब है पर कोई अपना नहीं होता
वो भी इसी शहर मे रहते हैं शायद
तभी तो जहर भी अब जहर नहीं होता
वो चाहता भी है और मिलता भी नहीं
ऐसे तो यार कोई दिलबर नहीं होता
वो ज़ख्म भी देता है और दवा भी
ऐसा शख्स तो कभी खुदा नहीं होता
छोड़ो इन कूचों को चलो ऐ "बिनोद "
रातभर सोचता हूँ पर सुबह ऐसा नहीं होता।