कलम के आँसू
कलम के आँसू
विचारों की नदी बह रही थी अनवरत
उठ रही थी इसमें लहरें अनगिनत ,
एक जाते ही दूसरा आ जाता था
यह विचारों का सिलसिला संपन्न ही नही हो
पाता था !
अब तो लिख लिख कर यह कलम भी
थक सी रही थी ,
लगता है जैसे इसकी स्याही सूख सी
रही थी !
कागज को भी अब यूँ गड़ने लगी थी
कलम ,
जैसे खंजर से कुरेद रहा हो कोई पुराना
जख्म !
लिखते लिखते वो बीते दर्द याद आने
लगे कुछ घाव थे जो सीने में वो कागज
में समाने लगे ,
नदियां ठहरती हैं जैसे समुंदर में , आज
कलम के रास्ते आँखों के आँसू कागज
में समाने लगे !!
