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Kumar Vikash

Tragedy

5.0  

Kumar Vikash

Tragedy

कलम के आँसू

कलम के आँसू

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विचारों की नदी बह रही थी अनवरत

उठ रही थी इसमें लहरें अनगिनत ,

एक जाते ही दूसरा आ जाता था

यह विचारों का सिलसिला संपन्न ही नही हो

पाता था !

अब तो लिख लिख कर यह कलम भी

थक सी रही थी ,

लगता है जैसे इसकी स्याही सूख सी

रही थी !

कागज को भी अब यूँ गड़ने लगी थी

कलम ,

जैसे खंजर से कुरेद रहा हो कोई पुराना

जख्म !

लिखते लिखते वो बीते दर्द याद आने

लगे कुछ घाव थे जो सीने में वो कागज

में समाने लगे ,

नदियां ठहरती हैं जैसे समुंदर में , आज

कलम के रास्ते आँखों के आँसू कागज

में समाने लगे !!


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