किसका हक ?
किसका हक ?
बुर्का और घूँघट अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं।
स्त्रियाँ हैं पीछे खड़ी पर कुछ पुरुष पर्दे को बचाने,
पूरी शिद्दत के साथ आपस में भिड़ रहे हैं।
कितना सुकून मिलता है न कुछ महान पुरुषों को
स्त्रियों पर लगी आदिकालीन पाबंदियों पर,
कानून की पक्की मोहर लगवाने में।
एक दिन ये हक की जंग खतम हो जाएगी।
धर्म और परंपरा के नाम पर फिर लड़कियाँ,
बुर्के और घूँघट की ओट में छिपा दी जाएँगी।
औरतों के नए ताज़े सपनों की ये मद्धम लौ,
इस बेहद गैर ज़रूरी परदादारी की आड़ में,
फिर से एक और युग के लिए बुझा दी जाएगी।