नन्ही कली
नन्ही कली
अभी तो मैं खिली थी एक
शाख पर कली बन
मधुर तोतले स्वर में बस माँ,
माँ पुकारती
माँ गोदी में लाड़ से दुलारती
तितली सी उड़ती, हिरणी
सी दौड़ती
नन्ही के पाँव में पायल
की रूनझुन थी
मन चाहा करने को
मचल -मचल जाती
ना जानती सपनों को सुहाने
बस अपनी धुन में सखियों
संग खेलती
आँधी आयी ऐसी एक दिन
शाख से बिखर नन्ही कली
झाड़ियों में दफ़न मिली
क्षत विक्षत अवस्था मे
कपड़े थे तार तार
नर पिशाच बन अंकल ने
उस मासूम के जिस्म को
नोचा था
ना समझ पायी वो अंकल
के गन्दे इरादे
कितनी तड़पी होगी,
कितना रोयी
उखड़ती सांसों ने माँ
पुकारा होगा
हद हो गयी दरिन्दगी की
उस की तड़प से ना
भीगा मन उस का
मुँह में नन्ही के कपड़ा ठूंस
कर दी हैवानियत की
हद पार
बुझ रही रोज टिमटिमाती
रौशनियाँ
बेबसी देख रो रहा है मन मेरा
वो दो साल की मासूम थी
आज कैसे उन नर
पिशाचों को
सजा दिलवाऊ
आज फिर कृष्ण तुम
को आना होगा
अपनी सखा द्रौपदी की
लाज को बचाना होगा ।
