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Vijay Kumari

Tragedy

4.0  

Vijay Kumari

Tragedy

किसान

किसान

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मैं किसान, मैं किसान। 

रात दिन खेतों में 

अथक परिश्रम करके, 

उगाता मैं अन्न, 

जिसको खाकर सबका

तृप्त होता तन-मन। 

रात दिन खेतों में 

अथक परिश्रम करके 

उगाता मैं अन्न

मैं किसान, मैं किसान। 


कड़कती धूप में

पसीने से हो तरबतर

खेतों में ही बसते हैं, 

मेरे प्राण

अथक परिश्रम मैं करता

कभी न मानता अपनी हार

मैं किसान, मैं किसान। 


खेतों में अपना 

खून -पसीना बहाता

परंतु मुझे मेरी मेहनत का 

न मिलता उचित दाम।

दिन भर मैं मेहनत करता

तनिक भी न मिलता

मुझ को आराम।

मै

ं किसान, मैं किसान। 


रूखी - सूखी खाकर 

मैं अपना पेट पालता

बच्चों को भी दे न सकता, 

मनपसंद खिलौने और 

जन्मदिन पर उपहार

मैं किसान, मैं किसान। 


साहूकारों के कर्ज तले 

मैं दबा रहता,

विवश होता कभी

घुट -घुट कर जीने को

जब नजर न आता कोई चारा

तो आत्म हत्या को बनाता

अपने गले का हार

मैं किसान, मैं किसान।


है सरकार से,

मेरी गुज़ारिश यही,

तनिक दे 

मेरी तरफ भी ध्यान

मिले मुझ को

मेरी फसल के उचित दाम, 

आए मेरे भी घर 

ख़ुशियों की बहार 

मैं किसान, मैं किसान।

 


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