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Vijay Kumari

Abstract

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Vijay Kumari

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कितनी दूरियों से कितनी बार

कितनी दूरियों से कितनी बार

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कितनी दूरियों से,

कितनी बार। 

मंजिल की ओर, 

बढ़ते हैं। 


दो मुसाफिर, 

रह जाता है, 

 उनमें एक, 

सबसे पीछे, 

आखिर। 

थका- हारा, 

गर्मी से, 

झुलसता बदन। 


बैठ जाता है, 

वह एक, 

पत्थर पर।

बीते पल की, 

एक याद, 

जो देती है, 

उसके मन पर, 

दस्तक। 


थक कर, 

हार कर 

बैठा क्यों है ? 

तू मुसाफिर

मंजिल है 

तेरी सामने, 

होता जा, 

तू अग्रसर। 


थक कर,

हार कर, 

बैठा क्यों है ? 

तू मुसाफिर। 

मुसाफिर उठता है, 

चलता है, 

अपनी थकान का 

कब उसे 

ध्यान रहता है

आखिर आता है, 


वह पल,

जब वह 

अपनी मंजिल

कर लेता है 

हासिल।


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