ख़्वाबगाह की फ़रियाद
ख़्वाबगाह की फ़रियाद
नींद आज सुलाना भूल गई मुझे
पलकों पर सपने खड़े हैं
रात के दूसरे पहर में दस्तक दी
मैंने साहिर की रचनाओं को जगा कर
बिस्तर पर बाजार लगाया
एहसास उमड़ने लगे
एक लोबानी महक कमरे को सराबोर कर गई
तालाब के पीछे की दरगाह से बहती
अज़ान सी पाक एक याद
पाजेब बजाते पैरों की आ गई
देखों गौहर बरस रहे हैं
चाँदनी रात में फ़लक के शामियाने से
मेरी उम्मीद टूटने के गम में
कुछ तारें भी टूटे हैं,
टूटने की आवाज़ पर हिरन भी चौंके है
शबनम से इत्र की बौछार हो रही है
झीने पर्दे को छनकर आ रही
दर्द की बारिश भीगो रही है
मेरे सामने पड़ी साहिर की तल्ख़ियां हंस रही है
तौबा के दरिचे से वो यादें
घूँघट उठाए झाँक रही है
बुझने लगे हैं तसव्वुर में
जो दिये झिलमिला रहे थे
उम्मीद की धूप के
ख़्वाहिश उन्मादीत नहीं करती अब
लो नींद के पैरों की आहट पर
पलकें बोझिल हो रही है
शब पर सहर की रश्मियों की दस्तक से पहले
सुकून के कुछ लम्हें ख़्वाबगाह को दे दूँ।

