खुशियों के पके फल
खुशियों के पके फल
कोशिशें तो बहुत की
कि तोड़ के खा लूं
चांदनी और कच्ची धूप में
पके खुशियों के फल, जो उगे हैं
बूढ़े लम्हों के पेड़ों पे।
खट्टी-मीठी यादों की
सीढ़ियां बना कर
चढ़ता रहा कदम-दर-कदम
हर कदम लेकिन चढ़ते हुए
मैं देख रहा था,
उस पेड़ की मुस्कान को भी
जिसकी जड़ों में दफन थी
मेरे पिता की खुशियाँ
उनके संस्कारों ने ही तो
उसे जमीं से जोड़ रखा था।
हर डाली जैसे
अपनी बाहें फैला के
मुझे बुला रही थी,
और मैं खुशियों के
पके फल तोड़ कर
ख़ामोशी से चल पड़ा
अपने बच्चों को खिलाने।