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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Classics

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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Classics

छेड़ती समय पाँखें

छेड़ती समय पाँखें

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अश्कों से नम होती पलकों पर, 

छेड़ती मुझको ये पंखियाँ

इंद्रधनुषी छटा बन झरती, 

विरहन के क्षण गहन निशा में। 


रजनीगंधा बिखरे आँगन में

पट-बीजना से जगती आशा 

चंद्रलेखा की चपलता को

प्यासा-प्यासा मन तरसे। 

कहीं खो गया सपन शून्य में, 

खो गई नींदें भी उन्मुक्त दिशा में।। 


इतनी दूर चली आई है

बसंत रानी की छाँह बेगानी

सूखे पत्तों पर अंकित 

श्याम-सखा से टपका पानी। 

उन्मद प्रेम इंतजार करती, 

क्षुधा जगाये आशा में।। 


समीर श्रावणी ले सुगंध तूफानी

वीरानी है फिर भी मधुर बातें

सुधि कर वह फिर रोती है

धवल-धवल राका की रातें। 

जल-जल उठते कनक बन-कानन, 

दग्ध-दग्ध मन अभिलाषा में।। 


कौन किसे बाँध पाया है आँचल में

सुरधनु की मोहक चापों को

अखिल विश्व को ठगती रहती

निर्दयी समय की बेरहम माया। 

नैराश्य धुल गये जीवन के, 

अनुरक्त प्रीति की मधुर भाषा में।। 


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