बाती-सा जलता जीवन
बाती-सा जलता जीवन
हृदय में वेदना पसीजती है
अँखियों में पुष्कर उफनती हैं।
बूँदें आसूँ की मन जैसी निर्मल है
पर ये जीवन बाती-सा जलता है।।
शापित हारे हुए प्राणों को
हिमालय ने अटल विश्वास दिये
घायल – व्याकुल अधरों को
मंजुल मधुरता का ऋतुराज दिये।
मेरी जीवंतता ही गिरिराज-का बोध ले
अंतस् जंगुल-ज्वाल पी-पीकर पिघलता है।।
बोये मैंने संदल के बीज कानन
कंटक बबूल कहाँ से उग आये
रह-रहकर चुभते हैं पलकों पर
सुगंधित सुख – सपनों के फूलों से।
बँधे हुए शिशिर के आँचल में जीवन
पर मुझको हर ऋतुऐं क्यों छलती हैं।।
पर संकल्प मेरे शिखर गगन छूने वाले
गली-
कूंचे-राहों में पंख-विहीन हो गये
निश्चय-विश्वासों ने लिया काट हमें
आसमानों के छोरों को अब कौन छुये।
चिर-आकुल आशायें वियोगिनी – सी
पिपासा में पली – बढ़ी विकलता हैं।।
पिये हँस – हँसकर हमने घूँट जहर के
हो – हल्ला भरे निहंग वीरानों में
ढूढोंगे तो तुम्हें भी मिल जायेगा विष
मेरी नम – नम ठहाकों में।
अब तो हर जख़्म सुलगता है
सोच-सोचकर नस-नस में लोहू उबलता हैं।।
क्यों छलती है तू रे मुझको
सुख – समृद्धि की दीवानी
खाकों में पड़ी जिन्दगानी मेरी
पल – पल आहों में मरती है।
मन नीर कणों सा निर्मल है
फिर भी जीवन बाती-सा जलता हैं।।