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Satish Shekhar Srivastava

Classics

4.5  

Satish Shekhar Srivastava

Classics

बाती-सा जलता जीवन

बाती-सा जलता जीवन

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हृदय में वेदना पसीजती है

अँखियों में पुष्कर उफनती हैं। 

बूँदें आसूँ की मन जैसी निर्मल है

पर ये जीवन बाती-सा जलता है।। 


शापित हारे हुए प्राणों को

हिमालय ने अटल विश्वास दिये

घायल – व्याकुल अधरों को

मंजुल मधुरता का ऋतुराज दिये। 

मेरी जीवंतता ही गिरिराज-का बोध ले

अंतस् जंगुल-ज्वाल पी-पीकर पिघलता है।।


बोये मैंने संदल के बीज कानन

कंटक बबूल कहाँ से उग आये

रह-रहकर चुभते हैं पलकों पर

सुगंधित सुख – सपनों के फूलों से। 

बँधे हुए शिशिर के आँचल में जीवन

पर मुझको हर ऋतुऐं क्यों छलती हैं।। 


पर संकल्प मेरे शिखर गगन छूने वाले

गली-

कूंचे-राहों में पंख-विहीन हो गये

निश्चय-विश्वासों ने लिया काट हमें

आसमानों के छोरों को अब कौन छुये। 

चिर-आकुल आशायें वियोगिनी – सी 

पिपासा में पली – बढ़ी विकलता हैं।। 


पिये हँस – हँसकर हमने घूँट जहर के

हो – हल्ला भरे निहंग वीरानों में

ढूढोंगे तो तुम्हें भी मिल जायेगा विष

मेरी नम – नम ठहाकों में। 

अब तो हर जख़्म सुलगता है

सोच-सोचकर नस-नस में लोहू उबलता हैं।। 


क्यों छलती है तू रे मुझको

सुख – समृद्धि की दीवानी

खाकों में पड़ी जिन्दगानी मेरी

पल – पल आहों में मरती है। 

मन नीर कणों सा निर्मल है

फिर भी जीवन बाती-सा जलता हैं।। 


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