वृंदा
वृंदा
एक कथा लिखती यहाँ,वृंदा जिसका नाम।
वृंदा परिणय सूत्र बँध,गयी जलंधर धाम।
दनुज जलंधर ने किया ,पग- पग पर बस युद्ध--
त्रस्त जगत् अरु देवता ,चाहे दनुज विराम।।
कमलनयन कह रोकते ,वृंदा सच्ची भक्त ।
वृंदा-दुख उनको लगे, नैन-अश्रु सम रक्त।
स्वीकारे प्रभु अंत में, धरे जलंधर रूप--
संहारे हरि दैत्य को,आया छल का वक्त।।
वृंदा छल को देखकर ,दे दी हरि को श्राप।
प्रस्तर बनकर प्रभु रहें,जीवन-भर अभिशाप।
माँ लक्ष्मी रोती रही ,ली वृंदा उर जीत--
संग जलंधर हो सती ,सही विरहिणी ताप।।
बहुत दिनों के बाद फिर,मँजरी थी शुचि धाम।
तुलसी उसका नाम था ,यात्रा यह अविराम।
ईश-भोग अब पूर्ण हो, जब हो तुलसी पत्र --
शालिग्राम सँग ब्याह है,वृंदा जिसका नाम।।
