ख़ुमारे वतन
ख़ुमारे वतन
मेरी ज़ुबान से निकले जब कोई कहानी,
मेरे वतन की यादें और शाने हिन्दुस्तानी !
सींचा है इसको हमने बुज़ुर्गों के लहु से,
नरम है आज बिस्तर मीठा है घर का पानी !
आबाद हो गये हैं, आज़ाद हो गये हैं,
नसों में अब भी बिजली, आँखों में है रवानी !
कांटे हों या कि गुल हों, मतलब नहीं फ़िज़ा से,
मिट्टी यहां की जन्नत, हर शख्श अदनानी !
ये ज़िन्दगी की सांसे, ये अज़माईशे तूफ़ानी,
हम मौत को समझते सैरे आसमानी !
आओ दहलीज़ देखो, आओ सहन में बैठो,
हर घर में पल रही है वतन की जवानी !
दरिया उबल रहे हैं, पर्वत सहम रहे हैं,
माथे पे तन गयीं जो, बुज़ुर्गों की निशानी !
अश्कों से कह चुके हैं उतरना नहीं जब तक,
साबित ये न कर दें, ये तो बस है पानी !
सांसों को गिनते नहीं दरिया के किनारे,
पी कर दिखायी मौजें, तो दुनिया जानी !
ग़रूरो हम्द, क्यों न गाये बुलबुल,
दरख्ते शाख़ पर है मरदे निगेहबानी !
दिखता नहीं कोई, गुलिस्तां मेरे वतन-सा,
दुनिया में हम कहीं हों या रूह हो आसमानी !
