खुदसे किनारा
खुदसे किनारा
सभी अपनों को खुशियों की धारा से जोड़ते-जोड़ते
अपनी खुशियों से स्त्री कर लेती है किनारा,
पर जब उसे होती है जरूरत अपनों की
तो नहीं बनता उसके टूटे दिल का कोई सहारा।
रह जाते है वो सपने अधूरे जिसे उसने पूरे करने को सोचा था,
पर समय निकल जाता है, हाथ में रह जाता है अफसोस का एक किनारा।
तुम स्त्री हो कोई ईश्वर नहीं जो हर काम,हर जरूरत को पूरा करने की जिम्मेदारी अपने कांधे पर उठाये फिरती हो,
अरे कुछ समय खुदको भी दो ईश्वर ने तुम्हे भी दूसरों की तरह एक जीवन है नवाजा।