ख़ुदाई
ख़ुदाई
तुम क्या गई
तनहाई ने पूरे घर को निगल लिया
तब से दीवारें हैं उखड़ी-उखड़ी सी
खिड़कियां भी उदास हैं
कोई चहल-पहल नहीं
कहीं गूमसुदा हुए
दीन का उजाला और तारों की रौनक
खन्डर सी मिलों तक है तन्हाई
एक खालिपन था
शहर की गलियों में
अजनबी लगने लगे थे वे चेहरे
जो कभी अपने थे
अब तो छत पर जाने में
भी डर लगता है
जाहां घंटों तुम्हारे साथ बिताए थे
फिलहाल काटने को दौड़ता
सूनी बिस्तर में लेटा
अपनी जूनून को हवा दे रहा था
तुम्हे ख़ुदा से छीन लाने की
फ़िराक़ में खोया था
तभी एक नन्ही सी हथेली
मेरे बालों को सहलाने लगी
मुड़ के देखा तो चौक गया
हू-ब-हू तुम ही तो थी....
मान गए तेरी खुदाई को
झोली कभी खाली नहीं रखता
लड़ ने चला था
शुक्रगुजार बना कर छोड़ा......।