ख़ता
ख़ता
है इसमें खता तुम्हारी भी...
क्यों नींदे मेरी चुराते हो
गर मूंद भी लूँ मैं पलकों को
तो सपना बनकर आते हो....
हो आस पास तुम कहीं नहीं
फिर साँसे क्यों महकाते हो
मौसम मंज़र हर शाम सहर
पल पल में तुम मुस्काते हो
ग़र बिसराना भी चाहूँ मैं
फिर याद क्यों ऐसे आते हो
हर शाम मेरी कॉपी पर तुम
अल्फाजों में ढल जाते हो

