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MUKESH KUMAR

Fantasy

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MUKESH KUMAR

Fantasy

ख़ल्वतों से भरे अर्श की ओर

ख़ल्वतों से भरे अर्श की ओर

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कोरे काग़ज़ पर यह कौन पिछे पीठ किए हुए 

निहारे है ख़ल्वतों से भरे अर्श की ओर मुँह किए हुए।


तर्जनी मध्यमा अनामिका काग़ज़ तले दबे हुए

फिर ये कौन कनिष्का और अंगूठे पे चित्र टिकाए हुए।


तू जो आसमाँ की तरफ़ मुँह करके देखे है

तुम्हारा कोई खो गया है वहाँ जो ऐसे देखे जाते हुए।


ज़मीं पे खिले चहुँ ओर सूरज-मुखी के फूल है

क्या ये लुबावने नहीं लगे अंकुरित-यौवना से भरे हुए।


न कोई कलरव करता निर्झर जल प्रपात है

न ही याँ शाख पे कंठ में नीर भरती कोइली गाते हुए।


फिर तुझे किससे शिकवा या शिकायत है 

जो रुसवा होके घर से दहर में आसमाँ तले खड़े हुए।


आसमाँ में बादलों की प्रतिछाया भी नहीं है

फिर ये कौन उजास में कोहरा बनके दिल में छाए हुए।


तुम्हारे ग़म में ये दहर स्थूल से सूक्ष्म बनते हुए

क्या सितम है कि तुम स्थिर हो यों ख़ामोश खड़े हुए।


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