मोहब्बत की गवाही
मोहब्बत की गवाही
आग़ोश–ए–कोहसार में तपती मोहब्बत की गवाही कहां से लाऊं
पिगलती बर्फ़ के बहते लहू में जलती लौ शमां की कैसे बु’झाऊं।
मेरे ख़्वाबों का हक़ीर सा जुगनू रातों को तेरी गुस्ताख़ी में तड़पता फिरे
तो बताओ तेरे सितम–ओ–गिरी में हिज़्र–ए–इश्क़ को कैसे भुलाऊं।
दर्द मेरा बिस्तर बन चुका है आंखों से बहता दरिया मेरा मयख़ाना
तू चारासाज़ी ही ना बनके आए तो बताओ दवा को कैसे पी जाऊं।
तेरी आंखों की तलब रखते है तू ए’तिबार क्यों करे चाहे ज़हर पी लूं
ज़िक्र करते–करते फितूर में तेरे सम्त उसकी तरफ निगाहें क्यूं फेरूं।
मेरे जिस्म में नरम कलियों से सजे गुलफ़ाम भी ख़ार बनकर चुभे है
मेरे दिल में तू है गुलिस्तां तुझे ज़माने की तौहमतों से कैसे उजाडूं।
तुम्हें मुझसे यों जफ़ा से पेश नहीं आना चाहिए मैं कोई आवारा नहीं
वफ़ा करके मैंने नीर पर, अर्श पर तेरा जो नाम लिखा है कैसे मिटाऊं।