मुड़ के देखो ज़रा
मुड़ के देखो ज़रा
तुम देखते ही रह गए दिल एक पंछी की तरह उड़ गया
आवाज़ें दी तुमने मुड़के देखो ज़रा वो मुंफ़रह उड़ गया।
तेरे कू–ए–दिल से जज़्बात प्रेम के उर में उमड़ा करते थे
उस दिन क्या हुआ निस्बत मुफ़रद वो शरह कूढ़ गया।
चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम तले यौवन के अंकुरित बीज़ों में संचय
करके वो खिल न सका अनायास क्यों फ़रह झड़ गया।
जिस्म में एक दिल धड़कता है तो दूजे में भी एक ही धड़के
नशिस्तें क्या आन पड़ी सब्ज़ हुई शाख़ बे-तरह छड़ गया।
सीने से हरदम लगाए रखे फिर क्यों दिल रूपी दरीचे से भागे
बेकल ज़ेहन, फैलाए हो हाथ जबकि वो हर–तरह उड़ गया!

