ख़लिश
ख़लिश
याद की दिल में किसी की रोज़ ख़लिश है बहुत !
रोज़ जिसको ही भुलाने की की कोशिश है बहुत
वो बनेगा ही नहीं मेरा हक़ीक़त में कभी
उठ रही दिल में यहाँ जिसकी ही ख़्वाहिश है बहुत
ढो रहा हूँ बोझ मैं बेरोजगारी का यहाँ
रोज़ मैंनें नौकरी की सिफ़ारिश है बहुत
छाँव उल्फ़त की यहाँ होगी भला फ़िर किस तरह
नफ़रतों की देखिए जब यहाँ तो यार तपिश है बहुत
क्या हुआ होगा यहाँ ऐसा मगर जो देखिए
हर तरफ़ देखो लगी ऐ यारो मजलिस है बहुत
किस तरह आबाद हो घर प्यार के फूलों से ही
अपनों से अपनों में देखी यार रंजिश है बहुत
दी नहीं है दाल ओ सामान फ़िर भी तो उधार
सच कहूँ मैं आज उससे की गुज़ारिश है बहुत
और वो ही बन गया दुश्मन यहाँ मेरा मगर
देखिए आज़म करी जिसकी नवाजिश है बहुत।
आज़म नैय्यर