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Subhrakanta Mishra

Abstract Tragedy Fantasy

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Subhrakanta Mishra

Abstract Tragedy Fantasy

कांच का महल

कांच का महल

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जब मौसम ग़म के बादल से उभरने लगे...

तोह दिल भी सिसकने लगता हे...

जब आँखों में ज़िन्दगी के दिए भुजने लगे....

तोह रूह भी बिखरने लगता हे....


कांच का महल ज़िन्दगी हे, मेरी नाज़ुक सी...

टूट जायेगा सब कुछ एक पल में लगता हे...

जहाँ इबादत के लिए रोज जाया करते थे...

वहां दूर तक बंजर ज़मीन दीखता हे...


ज़मीन पे खड़े रहते हे हम फिर भी..

गिर जायेंगे महसूस तनबदन रहता हे..

लाचार हूँ में छोटे बचे की तरह...

राह में कैसे चले होश न रहता हे...


धुआं हिन् धुआं हे सर ज़मीन अपना...

कहीं पे मंजिल हे सब धुंदला लगता हे...

जाना चाहूँ तेरे पास तेरी पनाहों में...

बदनसीब ज़िन्दगी, बिरह में पलता हे..


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