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Bhavna Thaker

Tragedy

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Bhavna Thaker

Tragedy

जुबाँ पे दर्द भरी दास्तान

जुबाँ पे दर्द भरी दास्तान

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आम औरत की लहू-लुहान जुबाँ हूँ मुझे लफ़्ज़ो की गठरी नहीं खोलनी,

कितने राज़ दफ़न है हलक में रोते छटपटाते पड़े है,

समाज का गौरवशाली मर्दाना समाज जल जाएगा अगर एक भी लफ़्ज़ छू लिया।

रहने दो दिल के भीतर ज्वालामुखी को ज्वलंत,

फूट पड़ेगा तो ज़लज़ले का सैलाब बहा ले जाएगा खोखले खयालों की कशिश को। 

मैं काया नहीं माया लगती हूँ, आँखों को उनकी हसीन ख़्वाबों का जहाँ लगती हूँ

काँच सी मेरी परत के नीचे सीने में दबे मांस को लालायित सी नज़रों से ही 

नौंच-नौंच कर खींच निकालने में माहिर मर्दानगी की नज़रों में

शर्म की हल्की टशर भी नहीं दिखती,

तकती ही रहती है जब तक ओझल ना हो। 

दूध पिलाती मासूम माँ के साड़ी के पल्लू का हल्के से हटने पर टंग जाती है

नज़रें कमनीय कमर ,पर क्यूँ उतर आते हैं औकात पर,

क्यूँ नज़रें उस प्यारे नज़ारें को प्यार से देखती नहीं। 

महज़ गोश्त नहीं मैं, मानस चित्र में मेरी छवि को एक ही रुप में ढ़ाल कर रखा है 

रौंदने की मौकापरस्ती ढूँढते दरिंदों की अपने घर की इज्जत कैसे सलामत साँसे लेती होंगी। 

अन्जाने में ब्लाउज से झाँकती स्ट्रीप खिंचती है ऐसे उस नज़रों को

जैसे फ्लौरासेंट रंगीनियों से चौंधिया जाती है आँखें।

अरे भैया महज़ आंतरिक वस्त्र ही तो है।

पाँच साल की बच्ची का बचपन छीन लिया,

फ्राक पहनाने की उम्र में नखशिख सी लदे बिलखती है,

ना समझ को कैसे समझाऊँ, आसपास घूमते भेड़िये के भेष में रहिशों की नज़रों से कैसे बचाऊँ।

डर लगता है अंधेरों में दो कदम की दूरी भी अकेले तय करने में

सहज सी नज़रें भी साँप सी लगती है, जैसे आग लगने पर सूखे के साथ हरियाली भी जल जाती है वैसे शराफ़त भी गुनाहगार के कठहरे में खड़ी लगती है।

"किस पर भरोसा करें"

तुम्हारे चरित्र निर्माण की सीढ़ी एक स्त्री है,

हर मर्यादा से अवगत करवाने वाली को हर मर्यादा तोड़ कर

रौंगटे खड़े कर देने वाली वहसियत से रौंद देते हो जैसे कोई मच्छर मसलता है बेदर्दी से।

राम ना बन सको ना सही रावण सी सोच से खुद को रावण प्रतिस्थापित मत करो,

तुम्हारी वहसियत सीमा लाँघ रही है।

स्त्री बारिश की बूँद सी है सहज लो जीवन सँवार देगी

कद्र नहीं करोगे तो वो वक्त दूर नहीं रौद्र रुप चंडी का लेकर कहर ढ़ाएगी। 

स्त्री रहस्यमय है इनसे डरो ये सब जानती है

तुम्हारी बिछाई जाल के बारे में हर नज़र हर चाल पहचानती है

बस चुप है कहीं तुम्हारी महज़ साफ़ सुथरी दिखने वाली शख़्सीयत नंगी होते बिखर ना जाए समाज की परिवार की चौपाल पर बस इसीलिए मौन हूँ

मुझे चुप ही रहने दो नहीं खोलनी लफ़्ज़ों की गठरी।।

अभी तो सिर्फ़ लब खुले हैं, जुबाँ मुखर हुई तो

शब्दों की आँधी में ढ़ह जाएगी आधी से ज़्यादा मर्दाना बस्ती।



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