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जनतंत्र

जनतंत्र

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एक दिन तांत्रिक से, एक तंत्र टकराया

कौन है यह, हालात देख वह मुस्कुराया

बढ़ाए बाल-नाखून, पहने कपड़े मैले कुचैले

झुकी रीढ़ की हड्डी, आँख के नीचे गड्ढे काले।


होठों पर पपड़ी भूख प्यास के निशान थे

सूख कर हो रहा, जैसे काँटे हो बबूल के

पूछने पर बोला, दीनता के भाव से

मैं जाना जाता हूँ जनतंत्र के नाम से।


जनतंत्र ! तुम तो सबके हो, सबके साथ में

फिर अब तुम कैसे पहुँचे हो इस हालात में

मैं जनता का, जनता के लिए जनता द्वारा

जनता के असहयोग से ही, जा रहा हूँ मारा।


समझ में न आ रहा है अब न है ठौर ठिकाना

मुश्किल है संकट की इस घड़ी में प्राण बचाना

सुनकर दयनीय हालत, तांत्रिक ने उपाय सुझाया

राजनीतिक पार्टियों के पास जाओ वे ही है साया।


उनकी ही जनतंत्र के पोषण की जिम्मेदारी है

करेंगे साफ सुथरा तुम्हें, ये उनकी भी लाचारी है

वे ही करते जनतंत्र के सशक्तिकरण की फ़िक्र है

इस बात का उनके द्वारा भाषण में होता जिक्र है।


जाओ, जी सकोगे ख़ूब, सुख व चैन से

करना न फ़िकर, रहना शान-ओ-शौक से

पर कुछ ही दिनों में तांत्रिक ने सुनी त्राहिमाम है

देखा तो जनतंत्र की उससे भी बुरे हालात है।


इस बार तो बदन में जख्मों के भी निशान है

जिनसे बराबर टपकता व रिस रहा खून है

देखकर हालात पूछा दया के भाव से

अब कैसे पहुँचे भाई इस हालात में।


सुनकर बोला वह बेचारा दीनता के भाव से

मैं पहुँचा आपसी उठापठक व खींचतान से

क्या बताऊँ भाई, सभी पार्टियों में मेरा जिक्र है

सबको अपने ही खेमें में ले जाने की फ़िक्र है।


अब तो आप देख ही रहे हैं, क्या मेरी शान है

हो गयी है मेरी यह हालत, शरीर लहूलुहान है

तांत्रिक है सोच में, सुनकर जनतंत्र की बात

सोच रहे, क्या करेगा यह गर रहे यही हालात।


फिर कुछ सोचकर किये घाव साफ है

करके मरहम पट्टी किया उसे माफ़ है

फिर सोचकर लिया संसद भवन का नाम है

जाओ तुम रहो वहाँ, वही तुम्हारा धाम है।


तभी तो लोग उसे कहते जनतंत्र का मंदिर है

हे विद्रोही ! क्या जिन्दादिलों का भी होता मंदिर है।


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