जलावतन
जलावतन
प्रिय डायरी
दिन पांच आज,
कुछ मन भी है उदास आज;
'भीड़ न बढ़ाओ' कहते- कहते
'न' - कब छूट गया पता ही न चला!
अब गली हो
बाज़ार हो
सड़क हो या सीमा-
चारों ओर सिर्फ़ भीड़ दिखती है।
भीड़ -
जो अपना बोरिया-बिस्तर बांधे निकल पड़ी है।
कुछ सीमित साधनों का
असीमित, अतिक्रमित उपयोग करते हुए,
तो कुछ
अपने दो पैरों के भरोसे।
एक भीड़ और -
इन प्रवासियों का हाल-
बेहाल देखने उमड़ पड़े
तमाशाइयों की;
अपने ही वतन में
जलावतन हो रहे इन लोगों की
नाउम्मीदों का
हताशा का
भय का
आशंकाओं का
हम में से किसी के पास कोई हल नहीं।
ये बीमार हैं!
बीमारी फलाएंगे !
बीमारी से मरेंगे !
या भूख से !
अपनों के बीच रहेंगे
या गुमनामी में-
इसका जवाब तो अब इनके पास भी नहीं।